Wednesday 10 March 2010

साजिशों का शहर

फिर एक याद ने
मुझे रात भर जगाया
दिल के कोने में छुपे
गम ने जमकर रुलाया।

न उजाले में चैन
अंधेरा भी डराता है
अपनों के दिए जख्म
अब नहीं कोई सहलाता है।

साजिशों के शहर में
बन गया मैं शिकार
मांग न पाए कोई पानी
दिल के मेहमानों ने
कर दिया ऐसा प्रहार।

अब उम्मीद-ए-वफा नहीं उनसे
जिन्होंने दिल तोड़कर
सिर भी कुचल डाला
जिंदगी की इस हेराफेरी में
हमारा जहां ही लूट डाला।

चाहत में तेरी
हमने मांगी वफा सदा
तुम्हारे कदमों में बिछ जाने की
हमेशा 'बिलासपुरी' ने मांगी मुराद
लेकिन अफसोस
चकनाचूर हो गया
हसरतों का घरौंदा।

फिर भी एक ही है तमन्ना
मेरी मिट्टी भी आए काम तेरे
कतरा-कतरा खून का
पूरे कर दे अरमान तेरे
मिल जाए जो कभी सुबूत
मेरी बेगुनाही का ऐ दोस्त
सितारों में ढूंढ लेना
आपके अहसानों की रौशनी में
हमेशा जगमगाता रहूंगा।

Sunday 7 March 2010

हमने चाहा....

हमने चाहा कि कोई हमे बता दे
क्या है जिंदगी 
थके हुए मुसाफिर ने कहा...
कि रुकना है जिंदगी
गुजर गई कई सदियां....
पर हम समझ न सके
क्या है जिंदगी 
खुशियों के दायरे ने कहा...
प्यार है जिंदगी 
लेकिन अगर कोई मुझसे पूछे
कि क्या है जिंदगी
तो मैं तो बस यही कहूंगा-
ठोकर खाकर संभलना ही है जिंदगी।
-रामप्रसाद मरालू

Saturday 6 March 2010

उधार की महिमा

सुबह-सुबह उठा तो पाया आज पर्स खाली है। खाली बटुआ टटोलने के बाद दिमाग पर जरा सा बोझ डाला। दिमाग ने रात का बहिखाता खोला तो मुझे अहसास हुआ कि शाम को मैं अपने लंगोटिया यार रुल्दू के साथ लालपरी के अड्डे पर गया था। अजी लालपरी तो नाम है, रुल्दू का प्यार तो वोदका है। जब दूसरे के पर्स पर बोझ पड़े तो यह प्यार और जवां हो जाता है। 
ऐसा ही कल हुआ। दफ्तर से तन्ख्वाह लेकर निकले तो रुल्दू बोला-आज कुछ हो जाए भाई।
मैंने जवाब दिया-क्यों नहीं। जब लाल परी के अड्डïे की सीढिय़ां चढऩे लगे तो रुल्दू बोला-भाई पिछले महीने साले साहब की शादी थी। मजाक-मजाक में इतना खर्चा हो गया कि इस महीने की चिंता सताने लगी है। जो पगार मिली है उधार चुकाने में खप जाएगी।
मैं अपनी आदत के अनुसार तुरंत शेर बन गया-कोई बात नहीं, मैं हूं न। इतना सुनते ही रुल्दू का सीना और चौड़ा हो गया।
हम लालपरी के अड्डे पर पदार्पण कर चुके थे मैंने रुल्दू के खास ब्रांड वोदका का आर्डर दिया और अहाते में घुस गए। रुल्दू बोला-मंगवा क्या रहे हो। मैंने तीन-चार आइटमों का आर्डर दे दिया। प्लेट और पेग सामने आया तो जीभ लगी लपलपाने। पीने का दौर चला तो न जाने कब थमा।
मैं रुल्दू के पास गया और रात की बात पूछी। उसने बताया-मुझे वोदका ने इतना मदहोश कर दिया था कि होश बाकी न रहा। पूरी पगार रुल्दू को उनके महीने के राशन, मकान किराया, टेलीफोन और केबल का बिल चुकाने के लिए हंसी खुशी दे दी थी। फिर मैं समझा कि उधार की महिमा मुझ पर हावी हो चुकी है।
पैसे दिए पूरे तीन महीने, साढ़े तेरह दिन हो चुके हैं। मैंने रुल्दू को उधार देकर वह महीना तो किसी तरह काट लिया लेकिन बिना पंख सातवें आसमान पर उड़ रही हमारी दोस्ती को मानो उधार ने घायल कर दिया। उसके बाद हमारे बीच कम ही बातचीत होती। दो बार रुल्दू से लक्ष्मी वापस मांगने की जुर्रत भी की लेकिन उसने मुझे ऐसे घूरा जैसे मैं चूहा और वह बिल्ली हो। मैं अपने उन हरे नोटों को देखने के लिए तरस गया हूं।
ऐसा नहीं कि उधार की इस महिमा ने मुझे ही निहाल किया। मेरे कुछ अन्य दोस्तों को भी इससे दो-चार होना पड़ा। गत दिनों हमारे बिहारी बाबू किसी रिश्तेदार के यहां गए और ऐसे 'हादसे' में जख्मी होते बाल-बाल बचे। पेश है उनका किस्सा उन्हीं की जुबानी :
'अरे महाराज का कहें। एक दिन हम अपने दोस्तवा के इहां भोर में ही पहुंच गए। उनकी लुगाई जो बीमार थी न। हमें उहां पहुंचे थोड़ा सा टाइम ही हुआ था कि महाराज उन्होंने हमसे दो हजार रुपइया मांग लिया। हम तो पहले की कड़की झेल रहे थे। उन्होंने पैइसे मांगे तो महाराज हमें तो जैसे सांप ही सूंघ गया। हम तो बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा कर उहां से खिसके। उसके बाद उनकी लुगाई का हाल पूछने की हिम्मत ही नहींं हुई।
उधार की महिमा ही ऐसी है। जो इसमें फंसा, फंसता ही चला गया। जिसने उधार दिया होता है वह इसलिए बात करने से कतराता है कि सामने वाला यह न सोचे कि पैसे लेने हैं इसीलिए बात की जा रही है। जिसने पैसे लिए होते हैं वह इसलिए बात नहीं करता कि अगर पैसे मांग लिए तो दे नहीं पाऊंगा। यह सोच दोनों को मतभेद की ओर ले जाने में कमी नहीं छोड़ती। फिर तो वही बात हो जाती है-जब से लिए हैं पैसे उधार, घट गया भाई का प्यार...।
कुछ समझे भइया...।
(दिल पर नहीं लेने का, व्यंग्य पर ओनली कमेंट देने का)

Wednesday 3 March 2010

थोड़ा इंतजार का मजा लीजिए...

हमारे जीवन में इंतजार का अपना ही मजा है। जो मजा किसी के इंतजार में है वह कहीं और नहीं है।
इस दुनिया में हर कोई किसी न किसी का इंतजार कर रहा है।
प्यार करने वालों को सदा अपने महबूब का इंतजार होता है। यही सोचते रहते हैं कि कब उनका दीदार हो। अगर वह जरा सा भी लेट हो जाए तो जैसे जान ही निकल आती है।
दूर रहने वाले प्रेमी प्रेमिका को लव-लेटर, एसएमएस और पोन का इंतजार होता है। दोस्त, रिश्तेदार और मां-बाप को अपने लाडले-लाडली के पत्र या फोन का इंतजार होता है। स्कूल-कालेज में पढ़ाई करने वालों को अपने रिजल्ट का इंतजार होता है। यहां तक कि जब परिणाम आने वाला हो तो कई दिन तक नींद भी नहीं आती। अगर किसी लड़के-लड़की की सगाई हो जाए तब तो उनकी नींद ही हराम हो जाती है। फिर शुरू हो जाता है शादी का लं...............बा सा इंतजार। जब शादी हो जाती है तो शुरू हो जाता है घर में किलकारी गूंजने यानी बच्चे का इंतजार।
जो आदमी भूखा होता है उसको अपने पेट के लिए रोटी का इंतजार होता है। रोटी तो आखिर रोटी है, चाहे वह ढाबे पर मिले या रेहड़ी पर या फिर घर में। वैसे घर के भोजन का तो अपना ही मजा होता है। आज के जमाने में बेरोजगारों को नौकरी का बेसब्री से इंतजार होता है, क्योंकि इतनी जमीन तो अब रही नहीं कि उसके सहारे ही जिंदगी गुजारी जा सके। जो नौकरी लग जाते हैं उनको छुट्टी का इंतजार रहता है, कि कब छुट्टी हो और कब ससुरालल जाएं।
इंतजार तो घरवाली को भी रहता है। आप पूछना चाहेंगे कि वह किस चीज का। अरे जनाब घरवाली को इंतजार होता है पहली तारीख का कि कब 'वो' तन्ख्वाह लाएंगे और कब मैं छीन लूं। सरकारी दफ्तरों में फाइलों का ढेर अफसर के साइन के इंतजार में रहता हगै। टीवी देखने वालों को आजकर इंतजार रहता है 'इमोशनल अत्याचारÓ का। नेता लोगों को इंतजार रहता है चुनावों का और इसके बाद जनता को इंतजार रहता है जीत जाने वाले नेताओं का जो पांच साल तक खत्म होने का नाम ही नहीं लेता।
कुछ लोगों को बैड टी का इंतजार होता है। कुछ को उठते ही बिस्तर पर 'अमर उजाला' का इंतजार होता है। इंतजार तो ऐसी चीज है जिसका संबंध हर व्यक्ति के साथ रहता है। इंतजार किसी भी चीज का हो, आदमी के लिए जरूरी है। इसके बिना जीवन में रस नहीं रहता। वह ठूंठ हो जाता है। इसी लिए किसी ने कहा है-थोड़ा इंतजार का मजा लीजिए...।
अच्छा फिर मुलाकात होगी.....मुझे आपसे मिलने का इंतजार रहेगा।
जय श्री राम।

पैसे कम

एक दिन रुल्दू नौकरी करने के लिए शहर में चला गया। उसने एक सेठ के पास नौकरी कर ली। एक दिन सेठ-सेठानी में तकरार हो गई और सेठानी मायके चली गई। सेठानी मायके गई तो सेठ को मौका मिल गया और वह उस रात अपनी प्रेमिका को घर में ले आया।
दूसरे दिन सुबह सेठ ने रुल्दू को सौ रुपए देते हुए कहा-इसके बारे में सेठानी को मत बताना कि मैं रात को अपनी प्रेमिका को लाया था।
रुल्दू बोला-सेठ जी ये पैसे तो इस काम के लिए बहुत कम हैं।
सेठ- कैसे?
रुल्दू-सेठ जी इसी काम के लिए सेठानी जी मुझे दो सौ रुपए दिया करती हैं।