Saturday 6 March 2010

उधार की महिमा

सुबह-सुबह उठा तो पाया आज पर्स खाली है। खाली बटुआ टटोलने के बाद दिमाग पर जरा सा बोझ डाला। दिमाग ने रात का बहिखाता खोला तो मुझे अहसास हुआ कि शाम को मैं अपने लंगोटिया यार रुल्दू के साथ लालपरी के अड्डे पर गया था। अजी लालपरी तो नाम है, रुल्दू का प्यार तो वोदका है। जब दूसरे के पर्स पर बोझ पड़े तो यह प्यार और जवां हो जाता है। 
ऐसा ही कल हुआ। दफ्तर से तन्ख्वाह लेकर निकले तो रुल्दू बोला-आज कुछ हो जाए भाई।
मैंने जवाब दिया-क्यों नहीं। जब लाल परी के अड्डïे की सीढिय़ां चढऩे लगे तो रुल्दू बोला-भाई पिछले महीने साले साहब की शादी थी। मजाक-मजाक में इतना खर्चा हो गया कि इस महीने की चिंता सताने लगी है। जो पगार मिली है उधार चुकाने में खप जाएगी।
मैं अपनी आदत के अनुसार तुरंत शेर बन गया-कोई बात नहीं, मैं हूं न। इतना सुनते ही रुल्दू का सीना और चौड़ा हो गया।
हम लालपरी के अड्डे पर पदार्पण कर चुके थे मैंने रुल्दू के खास ब्रांड वोदका का आर्डर दिया और अहाते में घुस गए। रुल्दू बोला-मंगवा क्या रहे हो। मैंने तीन-चार आइटमों का आर्डर दे दिया। प्लेट और पेग सामने आया तो जीभ लगी लपलपाने। पीने का दौर चला तो न जाने कब थमा।
मैं रुल्दू के पास गया और रात की बात पूछी। उसने बताया-मुझे वोदका ने इतना मदहोश कर दिया था कि होश बाकी न रहा। पूरी पगार रुल्दू को उनके महीने के राशन, मकान किराया, टेलीफोन और केबल का बिल चुकाने के लिए हंसी खुशी दे दी थी। फिर मैं समझा कि उधार की महिमा मुझ पर हावी हो चुकी है।
पैसे दिए पूरे तीन महीने, साढ़े तेरह दिन हो चुके हैं। मैंने रुल्दू को उधार देकर वह महीना तो किसी तरह काट लिया लेकिन बिना पंख सातवें आसमान पर उड़ रही हमारी दोस्ती को मानो उधार ने घायल कर दिया। उसके बाद हमारे बीच कम ही बातचीत होती। दो बार रुल्दू से लक्ष्मी वापस मांगने की जुर्रत भी की लेकिन उसने मुझे ऐसे घूरा जैसे मैं चूहा और वह बिल्ली हो। मैं अपने उन हरे नोटों को देखने के लिए तरस गया हूं।
ऐसा नहीं कि उधार की इस महिमा ने मुझे ही निहाल किया। मेरे कुछ अन्य दोस्तों को भी इससे दो-चार होना पड़ा। गत दिनों हमारे बिहारी बाबू किसी रिश्तेदार के यहां गए और ऐसे 'हादसे' में जख्मी होते बाल-बाल बचे। पेश है उनका किस्सा उन्हीं की जुबानी :
'अरे महाराज का कहें। एक दिन हम अपने दोस्तवा के इहां भोर में ही पहुंच गए। उनकी लुगाई जो बीमार थी न। हमें उहां पहुंचे थोड़ा सा टाइम ही हुआ था कि महाराज उन्होंने हमसे दो हजार रुपइया मांग लिया। हम तो पहले की कड़की झेल रहे थे। उन्होंने पैइसे मांगे तो महाराज हमें तो जैसे सांप ही सूंघ गया। हम तो बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा कर उहां से खिसके। उसके बाद उनकी लुगाई का हाल पूछने की हिम्मत ही नहींं हुई।
उधार की महिमा ही ऐसी है। जो इसमें फंसा, फंसता ही चला गया। जिसने उधार दिया होता है वह इसलिए बात करने से कतराता है कि सामने वाला यह न सोचे कि पैसे लेने हैं इसीलिए बात की जा रही है। जिसने पैसे लिए होते हैं वह इसलिए बात नहीं करता कि अगर पैसे मांग लिए तो दे नहीं पाऊंगा। यह सोच दोनों को मतभेद की ओर ले जाने में कमी नहीं छोड़ती। फिर तो वही बात हो जाती है-जब से लिए हैं पैसे उधार, घट गया भाई का प्यार...।
कुछ समझे भइया...।
(दिल पर नहीं लेने का, व्यंग्य पर ओनली कमेंट देने का)

1 comment:

  1. निका राम जी लेख में एक कमी रह गई,

    अगर मेरा नाम लिख देते तो दूध-का दूध और पानी का पानी हो जाता। खैर ! आपका लेख पढ़ कर शांति हुई ! लेख तो हम भी लिख सकते हैं, अगर लिख देंगे तो हम उपमाओं का प्रयोग नहीं करेंगे आपका नाम लिखेंगे, लेकिन उसमें जो धार होगी वो बहुत पैनी होगी। और बहुत सी बातों का पटाक्षेप करेगी। वैसे हम ऐसे छोटे-छोटे मसलों पर लिखते नहीं लेकिन आपके लेख से मुझे प्रेरणा मिली है, अगर मैं लिख दूं तो आप दिल पर भी लें और कमैंट भी दें। क्योंकि लेख में आपका नाम भी होगा और "उधार की महिमा" के पीछे का राज़ भी । जारी रहे..............। जय जय उधार!

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