Saturday 20 February 2010

धर्म के ठेकेदार

मेरे दद्दू बोला करते थे कि इस संसार में आपसी द्वेष, तनाव के तीन कारण होते हैं-जर, जोरू और जमीन। मगर यह तो इंडिया है मेरे भाई। यहां जब हर कोस पर पानी और बानी बदलती है ततो कंबख्त कहावतें किस खेत की मूली।
अरे यही निष्कर्ष तो निकलता समय-समय पर धर्म और समुदाय के नाम पर होने वाली झड़पों और दंगों से। इसकी फेहरिस्त गुजरात से लेकर न जाने कहां-कहां तक चलती है। आखिर हम विश्व गुरु हैं, जमाना हमीं से सीखकर आगे बढ़ता है। इसी विशेषता पर चलते हुए तो हमने रक्त बहाने का का नया बहाना ढूंढ निकाला है। यह है धर्म। इससे अच्छा बहाना हो भी नहीं सकता क्योंकि धर्म तो सबका व्यक्तिगत मामला जो ठहरा। इसके कारण धर्मांधों को भड़काना और भी आसान हो जाता है। धर्म के नाम पर भड़काना हमारे कुछ महानुभावों की नवविकसित आदत है। हमें यह आदत पड़ी नहीं, बल्कि डाली गई है।
अब आप सोच रहे होंगे डाली किसने। भाई यह काम तो अंग्रेज ही कर सकते थे। उन्होंने धर्म की चक्की में हिंदुस्तानियों को ऐसा पीसा कि हम घनचक्कर बन गए। अच्छे भले शरीफ होते थे, एक दूसरे के दुश्मन बन बैठे, शैतानी सिर पर छा गई। यह गुण पीढ़ी दर पीढ़ी थोड़ा बहुत ट्रांसफर हो रहा है। हमारे पूर्वजों की ताकत का डंका पूरी दुनिया में बजता था वहीं आज 'ठाकरेगीरीÓ की चर्चा है। क्या यही था भगवान श्रीकृष्ण और महात्मा गाधी का संदेश? मीरा भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती थीं कि हे प्रभु, मेरा तन-मन अपनी भक्ति में इस प्रकार रंग डालो कि कोई बड़े से बड़ा धोबी भी इसे धो न पाए। कुछ धर्म के ठेकेदारों की ओर से बहाए जा रहे लहू का रंग भी अमिट है, लेकिन इसमें आहें भी भरी पड़ी हैं। जो किसी को भी कभी भी धराशायी करने की ताकत रखती हैं।
ये धर्म के ठेकेदार अखंड भारत केसिद्धांत को चूर-चूर करने में भी कसर नहीं छोडऩा चाहते, इसी लिए एक तथाकथित नेता ने गत दिनों अलग महाराष्टï्र का शिगूफा छोडऩे की कोशिश की।
धर्म के ठेकेदारो, अभी भी सुधर जाओ, वरना जब आम आदमी के अंदर का इंसान जागेगा तो आपको खुद अपना वजूद खोजना पड़ेगा।

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